Prayaas ( The Effort )
जब जब में करता हूँ प्रयास,
तब तब होती है यह आस,
कि कुछ ऐसा लिखा जाये,
जो की सबके मन को भाए.
पर कथनी करनी के अंतर से,
और कल्पनाओं के जंतर से,
उड़ जाता है शब्द भण्डार,
हो जाता है मस्तिष्क बेकार.
फिर मुझको सूझा एक समाधान,
मिले मेरी कल्पना को नये प्राण,
प्रश्न ही बन गया था उत्तर,
और अनुभव बढा मेरा उत्तरोतर.
पर समस्यायें भी थी न अकेली,
भयंकर सारी न जाएं झेली,
पहली समस्या थी कुछ ऐसी,
पहले कभी न झेली जैसी.
विषय न कोई मुझे रास ही आता,
सोच सोच कर मैं थक जाता,
तुकबंदी मे था मैं अनाड़ी,
जैसे की बंगाल की खाड़ी.
मेरी कविता सहती लयहीनता,
मेरे लेखन मे थी अप्रवीणता,
अलंकारों की अनुपस्थिति ने,
और बेढंगी प्रस्तुति ने,
कविता के हर अंग को तोडा,
और भाषा से एक जंग को जोडा.
प्रारंभ हुई एक नयी सी शैली,
जिसमे निकलती शब्दों की रैली,
भाषा में जोड़े कुछ नये से शब्द,
जिस से हुए श्रोतागण क्षुब्ध,
विरोध से हुआ कविता का उपचार,
हुआ मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार,
हुआ भयभीत मैं विरोध से,
और भर गया मैं क्रोध से,
मेरे मन मे उठा यह विचार,
क्यों करते हो कविता बेकार,
प्रारंभ करो तुम फिर आरंभ से,
न डरो तुम उपालंभ से,
गद्य से करो एक नयी शुरुआत,
आशाओं के "मधुर" क्षितिज पर होगी एक दिन अवश्य प्रभात,
आशाओं के "मधुर" क्षितिज पर होगी एक दिन अवश्य प्रभात,
प्रयास ही जीवन,
जीवन ही प्रयास,
आशाओं की कभी न छूटे आस.
© (मधुर आहूजा)
ग्लोस्सरी:
१.क्षुब्ध=>नाराज़ होना
२.उपालंभ=>ताने कसना
तब तब होती है यह आस,
कि कुछ ऐसा लिखा जाये,
जो की सबके मन को भाए.
पर कथनी करनी के अंतर से,
और कल्पनाओं के जंतर से,
उड़ जाता है शब्द भण्डार,
हो जाता है मस्तिष्क बेकार.
फिर मुझको सूझा एक समाधान,
मिले मेरी कल्पना को नये प्राण,
प्रश्न ही बन गया था उत्तर,
और अनुभव बढा मेरा उत्तरोतर.
पर समस्यायें भी थी न अकेली,
भयंकर सारी न जाएं झेली,
पहली समस्या थी कुछ ऐसी,
पहले कभी न झेली जैसी.
विषय न कोई मुझे रास ही आता,
सोच सोच कर मैं थक जाता,
तुकबंदी मे था मैं अनाड़ी,
जैसे की बंगाल की खाड़ी.
मेरी कविता सहती लयहीनता,
मेरे लेखन मे थी अप्रवीणता,
अलंकारों की अनुपस्थिति ने,
और बेढंगी प्रस्तुति ने,
कविता के हर अंग को तोडा,
और भाषा से एक जंग को जोडा.
प्रारंभ हुई एक नयी सी शैली,
जिसमे निकलती शब्दों की रैली,
भाषा में जोड़े कुछ नये से शब्द,
जिस से हुए श्रोतागण क्षुब्ध,
विरोध से हुआ कविता का उपचार,
हुआ मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार,
हुआ भयभीत मैं विरोध से,
और भर गया मैं क्रोध से,
मेरे मन मे उठा यह विचार,
क्यों करते हो कविता बेकार,
प्रारंभ करो तुम फिर आरंभ से,
न डरो तुम उपालंभ से,
गद्य से करो एक नयी शुरुआत,
आशाओं के "मधुर" क्षितिज पर होगी एक दिन अवश्य प्रभात,
आशाओं के "मधुर" क्षितिज पर होगी एक दिन अवश्य प्रभात,
प्रयास ही जीवन,
जीवन ही प्रयास,
आशाओं की कभी न छूटे आस.
© (मधुर आहूजा)
ग्लोस्सरी:
१.क्षुब्ध=>नाराज़ होना
२.उपालंभ=>ताने कसना
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